बुधवार, फ़रवरी 28

गीत उपजते अधरों से यूँ






गीत उपजते अधरों से यूँ


रंग बिखेरे जाने किसने
उपवन सारा महक रहा है,
लाल, गुलाबी, नीले, पीले
कुसुमों से दिल बहक रहा है !

एक सुवास नशीली छायी
मस्त हुआ है आलम सारा,
रँगी हुई है सारी धरती
होली का है अजब नजारा !

फगुनाई भर पवन बह रही
उड़ा रही है पराग गुलाल,
सेमल झूमी, महुआ टपका
फूले कंचन, कनेर, पलाश !

कण-कण वसुधा का हर्षित है
किसने आखिर किया इशारा,
मधुमास में चहकते पंछी
जाने किसने उन्हें पुकारा !

रस टपके मुदिता भी बरसे
कुदरत सारी नई हुई है,
गीत उपजते अधरों से यूँ
जैसे वर्षा बूंद झरी है !

मौसम का ही असर हुआ है
मन मयूर दिनरात नाचता,
बासंती यह पवन सुहाना
अंतर्मन में प्यास जगाता  !

होली रंग बहाती सुखमय
तन के संग-संग मन भीगे,
सारे जग को मीत बना लें
पिचकारी से प्रीत ही बहे !

शनिवार, फ़रवरी 24

राग अनंत हृदय ने गाया


राग अनंत हृदय ने गाया



मन राही घर लौट गया है
 पा संदेसा इक अनजाना,
नयन टिके हैं श्वास थमी सी
एक पाहुना आने वाला !

रुकी दौड़ तलाश हुई पूर्ण
आनन देख लिया है किसका,
निकला अपना.. पहचाना सा
जाने कैसे बिछड़ गया था !

कदर न जानी जान पराया
व्यर्थ दर्द के दामन थामे,
एक ख़ुशी भीतर पलती थी
जाने क्यों मुख मोड़ा उससे !

रसभीनी ज्यों पगी मधुक में
इक मनुहार छुपी थी मन में,
जिसकी खातिर आँखें बरसीं
वह झंकार बसी कण-कण में !

द्वार खुले अब दिल के ऐसे
भरा समन्दर, गगन समाया,
सिमट गयीं सारी सीमाएं
राग अनंत हृदय ने गाया !

नयन न खुलते जग फीका सा
मदिर-मदिर रस कोई घोले,
मौन की गूँज सुनी है जबसे 
चुप रहें अधर भेद न खोलें ! 

बुधवार, फ़रवरी 21

फागुन झोली भरे आ रहा




फागुन झोली भरे आ रहा


सुनो ! गान पंछी मिल गाते
मदिर पवन डोला करती है,
फागुन झोली भरे आ रहा
कुदरत खिल इंगित करती है !

सुर्ख पलाश गुलाबी कंचन
बौराये से आम्र कुञ्ज हैं,
कलरव निशदिन गूँजा करता
फूलों पर तितली के दल हैं !

टूटा मौन शिशिर का जैसे
एक रागिनी सी हर उर में,
मदमाता मौसम छाया है
सुरभि उड़ी सी भू अम्बर में !

नव ऊर्जित भू कण-कण दमके
हलचल, कम्पन हुआ गगन में,
पवन चले फगुनाई सस्वर
मधुरनाद गुंजित तन-मन में !

भीनी-भीनी गंध नशीली
नासापुट में महक भर रही,
रंगबिरंगे कुसुमों से नित
वसुंधरा नित राग रच रही !


बुधवार, फ़रवरी 14

इश्क की दास्ताँ





इश्क की दास्ताँ


उसने दिए थे हीरे हम कौड़ियाँ समझ के
जब नींद से जगाया रहे करवटें बदलते

ओढ़ा हुआ था तम का इक आवरण घना सा
माना  स्वयं  को घट इक जो ज्ञान से बना था

गीतों में प्रेम खोजा झाँका न दिल के भीतर
दरिया कई बसे थे बहता था इक समुन्दर

गहराइयों में दिल की इक रोशनी सदा है
उतरा नहीं जो डर से उस शख्स से जुदा है 

तनहा नहीं किसी को रखता जहाँ का मालिक
हर दिल में जाके पहले वह आप ही बसा है

जिस इश्क के तराने गाते हैं लोग मुस्का
मरके ही मिलता सांचा उस इश्क का पता 

उस एक का हुआ जो हर दिल का हाल जाने
सबको लगन है किसकी यह राज वही जाने

सोमवार, फ़रवरी 12

‘कुछ’ न होने में ही सुख है





‘कुछ’ न होने में ही सुख है 


‘कुछ’ होने की जिद में अकड़ा
फिर-फिर दुःख को कर में पकड़ा,
इक उलझन में हरदम जकड़ा
 क्यों न हो दिल टुकड़ा-टुकड़ा !

कुछ होकर भी देख लिया है
कुछ भी जैसे नहीं किया है,  
तृषित अधर सागर पिया है
 दिल का दामन नहीं सिया है !

‘कुछ’ ना होने में ही सुख है
मिट जाता जन्मों का दुःख है,
मुड़ा जिधर समीर का रुख है
सब उसका जो अंतर्मुख है !

सब कुछ ही हो जाना होगा
भेद हरेक मिटाना होगा,
लब पर यही तराना होगा
दिल तो वहीं लगाना होगा !

शुक्रवार, फ़रवरी 9

अनुरागी मन



अनुरागी मन

कैसे कहूँ उस डगर की बात
चलना छोड़ दिया जिस पर
अब याद नहीं
कितने कंटक थे और कब फूल खिले थे
 पंछी गीत गाते थे
या दानव भेस बदल आते थे
अब तो उड़ता है अनुरागी मन
भरोसे के पंखों पर
अब नहीं थकते पाँव
' न ही ढूँढनी पड़ती है छाँव
नहीं होती फिक्रें दुनिया की
 उससे नजर मिल गयी है
घर बैठे मिलता है हाल
सारी दूरी सिमट गयी है !

गुरुवार, फ़रवरी 8

शून्य और पूर्ण



शून्य और पूर्ण


 तज देता है पात शिशिर में पेड़
ठूंठ सा खड़ा होने की ताकत रखता है
 अर्पित करे निज आहुति
सृष्टि महायज्ञ में
नुकीली चुभन शीत की सहता है
भर जाता कोमल कोंपलों औ’ नव पल्लवों से
 बसंत में वही खिल उठता है
त्याग देता घरबार सन्यासी
स्वागत करने को हर द्वार आतुर होता है
पतझड़ के बाद ही आता है बसंत
समर्पण के बाद ही मिलता है अनंत
शून्य हो सका जो वह पूर्ण बनता है
हीरा ही वर्षों माटी में सनता है !


गुरुवार, फ़रवरी 1

कल जो चाहा आज मिला है

कल जो चाहा आज मिला है


भय खोने का, पाने का सुख
मन को डाँवाडोल करेगा,
अभय हृदय का, वैरागीपन
पंछियों में उड़ान भरेगा !

मंजिल की है चाह जिन्हें भी
कदमों को किसने रोका है,
बाधाएँ भी रची स्वयं ने
सिवा उसी के सब धोखा है !

कल जो चाहा आज मिला है
कौन शिकायत करता खुद की,
निज हाथों से पुल तोड़े हैं
नौका डूब रही अब मन की !

जीवन एक विमल दर्पण सा
जस का तस झलकाता जाता,
नयन मूंद ले कोई कितने
अंतर राग बरस ही जाता !