छिपा अरूप रूप के पीछे
इश्क में जो भी डूबा यारा
बहती भीतर अमृत धारा,
जब-जब उस से लगन लगाई
जल जाती हर झूठी कारा !
जब कण-कण में वही बसा है
नयनों से फिर कौन पुकारे,
स्मित उसका पट छूकर आयी
भाव पंख से जिसे सँवारे !
हल्का-हल्का सा स्पंदन है
किस अनदेखे का नर्तन है,
पलक झपकते निमिष मात्र में
महाकाल का शुभ वंदन है !
छिपा अरूप रूप के पीछे
उसे निहारा किन नयनों से,
सुख की गागर सदा लुटाये
व्यक्त हुआ ना वह बयनों से !
रूप, रंग, रस स्वाद अनूठा
कौन सुनाये अपनी गाथा,
कोई नहीं अलावा उसके
खुला रहस्य उसने बांचा !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 01 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंसुंदर सरस सृजन।
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम !
हटाएंसुंदर सृजन ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन।
बहुत बहुत स्वागत है आपका !
हटाएंईश्वर से लगन जब लग जाती है तो प्रेम रस की धार स्वतः प्रवाहित हो उठती है ... हर अरूप सुन्दर रूप में बदल जाता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर छंद ... मन में रस धार घोलते हुए ...
सही कहा है आपने .. कविता के मर्म को समझने के लिए आभार !
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