मन से अमन तक
हर श्वास वर्तमान में घटती है
हर वचन वर्तमान में बोला जाता है
हर भाव वर्तमान में जगता है
हर फूल वर्तमान में खिलता है
हर भूख वर्तमान में लगती है
हर गलती वर्तमान में ही हो रही होती है
सब कुछ घटा है और घट रहा है वर्तमान में
तो मन क्यों नहीं रहता वर्तमान में
कभी बीते हुए कल को ले आता है
कभी भविष्य को लेकर डरता है
यूँही तिल का ताड़ बनाकर
कल्पनाओं में घरौंदे बनाता-बिगाड़ता है
मन जिसे कहते हैं
वह भूत और भावी की परछाई है
भूत जो कभी वर्तमान था
भावी जो कभी वर्तमान बनेगा
मन एक प्रतिबिम्ब है
छाया मात्र..
और उसी से चलता है जीवन
ऐसा जीवन भी एक भ्रम के अतिरिक्त भला क्या होगा
मन सदा पुराने को ढोता है
भविष्य को भी अतीत के चश्मे से देखता है
वास्तविक जीवन इसी क्षण में है
जब अस्तित्व मौजूद है पूर्ण रूप से
जिसे ढाल सकते हैं नए-नए रूपों में
वर्तमान सदा नया है
हर पल अछूता, प्रेम पूर्ण
हर पल असीम और अनंत !
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-12-2019) को "आप अच्छा-बुरा कर्म तो जान लो" (चर्चा अंक-3539) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना अनीता जी ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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