लहर उठी सागर में ऐसे
अभी-अभी इक लहर उठी है
अभी-अभी इक महक जगी है,
अभी-अभी इक कुसुम खिला है
अभी-अभी इक बूँद झरी है !
लहर उठी सागर में ऐसे
दूर कहीं जाना हो जैसे,
तट से टकरा लौट ही गयी
आहत हुआ सजल तन कैसे !
सागर बाँह पसारे ही था
दिया आश्रय लहर को ज्यों ही,
गहन मिला विश्राम उसी पल
लौट गया ज्यों पंछी घर को !
मन भी दौड़ लगाना चाहे,
किंतु कहीं भी चैन न मिलता !
सागर जैसे उस अनंत को
पाकर ही मन मुकुर निखरता !
कभी कमल बन खिल जाता मन
किंतु महक भी साथ छोड़ती,
पल दो पल में कुम्हला जाता
चाहे वर्षा धार डुबोती !
सुख का स्रोत कहीं तो होगा
जो रूप, रस, गंध उड़ेंले,
अमिय अमित जो चाहे चखना
उस से जाकर नाते जोड़े !
सुख का सोता अंतःकरण से फूटे तभी बाह्यजगत में उसकी प्राप्ति संभव है ,अन्यथा खोजते ही जन्म बीत जाता है.
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, सब कुछ भीतर बाहर नाहिं ! स्वागत व आभार प्रतिभा जी !
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