ज्ञान और अज्ञान
असीम है ज्ञान
और अज्ञान की भी सीमा नहीं है मानव के
सह लेता है जन्म और मृत्यु का दुःख
काट लेता है वृद्धावस्था भी रो-झींक कर
सामना करता है रोग का
पर क्या कहें दुःख के उस भंडार का
जो लिए फिरता है अपने कांधों पर
उस क्रोध का, जो जलाता है खुद को
और झुलसाती है जिसको आंच दूसरों को भी
ईर्ष्या की लपटें जो खुद ही सुलगाता है भीतर
जब चीजें जुडी हैं आपस में इस तरह कि
एक चींटी भी दे रही है योगदान इस सृष्टि में
तो वह अहंकार के हाथी पर चढ़ा
गिर कर धूल फांकता है
न जाने किस अज्ञात भय से कँपता है उसका मन
घृणा का बीज डालता है स्वयं ही
फिर प्रेम के फलों की उम्मीद बाँधता है
समझदारी की आशा कौन करे
विवेक को सुलाकर मदहोश हुआ
चंद घड़ियाँ चैन से बिताता है
पाना चाहता है सारा संसार बिना श्रम
लेकर असत्य का सहारा भी ...
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंरचना बहुत सशक्त और सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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