देना
बादल बनकर बरसें नभ से
यह तो हो नहीं सकता
क्यों न उड़ा दें सारी वाष्प मन से
वाष्प जो कर देती है असहज
नहीं आता रवि किरणों सा
फूलों को खिलाना
तो क्या हुआ
प्रेम की ऊष्मा से सुखा दें अश्रु किसी के
जब देने का ही ठान लिया है
तो दे डालें स्वयं को पूरी तरह
नहीं रखें बचाकर कुछ भी
यह जो झिझक भर जाती है मन में
यह अहंकार का ही दूसरा नाम है
हर असहजता इसी की खबर देती है
कि अभी भी शेष है कुछ पाने को !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 17 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शास्त्री जी !
हटाएंकुछ शेष रह जाता है तभी
जवाब देंहटाएंशायद झिझक पैदा होती है
वरना समर्पण में शक कैसा??
बेहतरीन कविता।💐💐
प्रेम की ऊष्मा से कई का भी दर्द सोखा जा सकता है ये सत्य है ... और पूर्ण समर्पण से ही ये सम्भव है ... सुंदर रचना ...
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