कोरे कागज सा जो मन था
जब अनजान बना फिरता था
तब तेरे दीवाने थे हम,
जब से आना-जाना हुआ है
बेगाना सा क्यों लगता है !
रीत प्रीत की अजब निराली
सदा अधूरी चाहें दिल की,
जाने किसकी नजर लगी है
रस्ता धूमिल सा लगता है !
कोरे कागज सा जो मन था
अति उज्ज्वल शिखर हिमालय का,
मटमैले दरिया सा बहता
पथ भूला-भूला लगता है
किन्तु याद इक पावन उर की
अहर्निश वही याद दिलाती
एक पुकार उठी जब दिल से
भावों का निर्झर बहता है
नहीं शुष्क है अंतर गहरा
गहरे जाकर यदि खंगाले,
किन्तु खड़ा जो प्यासा तट पर
जग उसको सूना लगता है !
बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंसादर
पढ़ें- कोरोना
सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शास्त्री जी !
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (20-03-2020) को महामारी से महायुद्ध ( चर्चाअंक - 3646 ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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आँचल पाण्डेय
बहुत बहुत आभार !
हटाएंचाहत जो पास तो है लेकिन उस पर हक़ हमारा नहीं.
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा सृजन.
सही कहा है आपने, हक जताते ही चाहत गुम जाती है
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंMere blog par aapka swagat hai.....
स्वागत व निमन्त्रण के लिए आभार !
हटाएंबहुत सुंदर रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंस्वागत है अनुराधा जी !
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