मिथ्या-अमिथ्या
बादल ज्यों नभ में आकार लेते हैं
और पल में बदल जाते हैं
सागर में लहरें, बूंदें, फेन बनती, बिगड़ती हैं
गगन पर नक्षत्र उगते, अस्त होते हैं
कहीं कोई स्थिर नहीं...
देह में कोशिकाएं जन्मती-मरती रहती हैं प्रतिक्षण
मन एक सरिता की भांति
बहता जाता है अनंत काल से
क्रोध, प्रेम, उदारता की लहरें जिसमें
उमगती मिटती रही हैं हजारों बार
जो अभी था, अभी नहीं है
मिथ्या है
जैसे पर्दे पर कोई तस्वीर हो चलती फिरती
छुपा है वह प्रोजेक्टर जो पीछे से
भेज रहा है प्रकाश
जिससे बनती हैं ये सारी आकृतियां
उसे खोजें और पल भर के लिए ही कभी
रिक्त हो जाये पट
शायद उस क्षण मिलन होगा उससे
जो मिथ्या नहीं है !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 19 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंशुक्रिया !
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
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