अस्तित्त्व और हम
सुकून झरता है
उसी तरह... जैसे जल
हम उपेक्षा का छाता लगाए
बच निकलते हैं
काश ! अस्तित्व के साथ यूँ होता मिलन
जैसे टकराते हैं दो पात्र निकट आकर सहजता से
और फ़ैल जाती है संगीत की स्वर लहरी !
मिलन तो निरन्तर घटेगा
उसी से उपजे हैं
उसी में रहेंगे....
इस मिलन से बह सकता है
मधुर गीत
या फूट सकती हैं ज्वालायें !
उसके साथ यदि टकराई लहर
जो सागर अनंत है
तो खो जाएगी...
चाहे तो लहराए उसके विशाल प्रांगण में
संगीत गुंजाए.... नाचे
सूर्य की किरणों में
सतरँगी आभा बिखराये !
कभी निकल पड़े आकाश की यात्रा पर
फिर बदली संग बरस जाए
मानसरोवर या हिमालय शिखर पर
प्रकृति के साथ संघर्ष हुआ
तो रोना ही होगा
न जाना यह भेद तो
हर युग में मानव को को-रोना ही होगा !
प्राकृति से टकराव कहीं नहीं ले जाने वाला ...
जवाब देंहटाएंमिल के चलना ही हर बात का समाधान है ... सुन्दर गहरे भाव ...
स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंविलक्षण दार्शनिक भाव!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंमिलन से मधुर गीत निकलेगा या ज्वालाएं यह मिलन केी प्रकृति व उद्देश्य पर निर्भर है ...मनुष्य को प्रकृति ने सबकुछ दिया है पर उसका उपयोग सार्थक हो इसकी समझ जरूरी है . बहुत गहरे भाव हैं उतने ही व्यापक भी .
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं आप गिरिजा जी, स्वागत व आभार !
हटाएंप्रकृति ही संतुलन बनती है मनुष्य साधन मात्र हे
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
बहुत सुंदर सीख देती रचना ,सादर नमन
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