जीवन मिला था फूल सा
सुख कामना के पाश में
जकड़ा रहा दिन-रात मन,
जो था सदा जो है सदा
होता नहीं उससे मिलन !
जीवन मिला था फूल सा
फिर शूल बन कर क्यों चुभे,
प्रज्ञा का दीप जल रहा
पर रात काली क्यों डसे !
जो जानता है राज यह
है रिक्त उसका मन हुआ,
वह शून्यवत आकाश है
विलीन हर अनुबंध हुआ !
पशु है वही जो पाश में
जकड़ा हुआ है काम में,
मानव वही जो झाँक ले
नयनों में उस अनाम के !
सुन्दर और हृदयग्राही रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआभार !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंजीवन की विषमताएँ कब I सान को शूल बना देती हैं पता नहीं चलता ... ऐसे में नयनों का अनाम भी दिखाई नहीं देता ...
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