रविवार, जुलाई 19

कैसे कोई समझे उसको


कैसे कोई समझे उसको 
 

वह अजर अमर, है अटल शिखर 
अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप रहा, 
कुसुमों से भी कोमल उर है 
बन मानव हर संताप सहा !
 
लघु पीड़ा से व्याकुल होता 
प्रियजन पर प्रेम लुटाता है, 
जब कोई राह भटक जाता 
करूणाकर पुनः दिखाता है !
 
वह वाणी का मर्मज्ञ बड़ा 
रसिक दिलदार रसज्ञ भी है, 
प्रकृति ने अनेकों रूप धरे 
भरे प्राण उन्हें डुलाता है !
 
जड़ चट्टानों से झर निर्झर
उससे ही बह चैतन्य हुए,
अग्नि की लपटों में प्रज्ज्वलित 
वायु के प्रचंड झकोरों में !
 
असीम अंबर सा व्याप्त रहा 
सब लीला उसमें घटती है, 
कैसे कोई समझे उसको 
मेधा भी उससे झरती है !
 
वह शिव भी है शक्ति भी वही 
वह एक बहुत अलबेला है,
उसको भजता मन जिस क्षण जो  
रहता ना कभी अकेला है !
 

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