बुधवार, जुलाई 22

भोर

भोर 

बजती हैं चाइम की मधुर घण्टियाँ
प्रातःसमीरण में झूमकर 
पारिजात के फूलों को 
छूकर बहती चली आती है जब वह ! 
लिए आती है संदेश उदित होते नव प्रभात का 
पंछियों के स्वर गान का 
जो अब बस खोलने ही वाले अपने नेत्र 
भोर में प्रकृति कितनी पावन लगती है 
गगन पर बदलियों के पीछे झाँक रहा है 
अभी भी पूनो का चाँद 
पर नजर नहीं आते तारागण 
वह पूनम का चाँद ही तो है खिला-खिला   
वही अपना है जंगल में जैसे 
कोई बिछड़ा मीत मिला 
जानना नहीं है उसे 
अज्ञेय है वह 
पाना भी नहीं है 
कभी खोया ही नहीं वह 
जागना है 
, भूल गया है जो मन उसे याद भर दिलाना है 
अस्तव्यस्तता छायी है जो जीवन में 
उसे सँवारना है 
मिलता है वह भोर और संध्या काल में  

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.7.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ जुलाई २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  3. प्रकृति से संयोजन करती सुंदर रचना
    सादर

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  4. जानना नहीं है उसे
    अज्ञेय है वह
    पाना भी नहीं है
    कभी खोया ही नहीं वह
    जागना है
    भूल गया है जो मन उसे याद भर दिलाना है
    वाह!!!
    अति सुन्दर।

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