मंगलवार, अक्तूबर 13

उस लोक में

उस लोक में 


जहां आलोक है अहर्निश 

किंतु समय ही नहीं है जहाँ

रात-दिन घटें कैसे ? 

पर शब्दों की सीमा है 

जागरण के उस लोक में 

जहाँ नितांत एकांत है 

और निपट नीरव 

पर जहाँ जाकर ही मिलता है 

मानव को निजता का गौरव 

उस निजता का जिसमें कोई पराया है ही नहीं 

जहाँ हर पेड़-पौधे, हर प्राणी से 

जुड़ जाते हैं अदृश्य तार 

जहां वाणी के बिना ही संदेश 

लिए-दिए जाते हैं 

चेतना का वह प्रकाश ही 

बरस रहा है ज्योत्स्ना में 

जिसे हंस की तरह चुगना होगा 

उस आभा से ही भीतर

मन का आसन बुनना होगा 

जिससे बुनते हैं कबीर झीनी चादर 

जो ज्यों की त्यों रह जाती है 

उस जागरण की याद 

हमें क्यों नहीं सताती है ! 





3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (14-10-2020) को   "रास्ता अपना सरल कैसे करूँ"   (चर्चा अंक 3854)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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