निकट है जो सदा अपना
है अधूरा हर समर्पण
कहाँ कुछ हम छोड़ पाते,
प्रेम पाना चाहते पर
राज उर में भी छुपाते !
निकट है जो सदा अपना
खोजते हम दूर नभ में,
चाहतों से दिल भरा यह
एक उसकी भी दिखाते !
छिपे अपने लक्ष्य कितने
उन्हें कैसे भूलता मन,
सिर झुका है द्वार उसके
स्वप्न निज सुख का सजाते !
है अधूरा हर समर्पण
जवाब देंहटाएंकहाँ कुछ हम छोड़ पाते,
प्रेम पाना चाहते पर
राज उर में भी छुपाते !,,,,,, बहुत सुंदर रचना,
स्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 23 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंनिकट है जो सदा अपना
जवाब देंहटाएंखोजते हम दूर नभ में,
चाहतों से दिल भरा यह
एक उसकी भी दिखाते !
वाह !!सुंदर रचना
स्वागत व आभार !
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