बहा करो उन्मुक्त पवन सम
अनल, अनिल, वसुधा, पानी से
जीवन का संगीत उपजता,
मिले-जुले सब तत्व दे रहे
संसृति को अनुपम समरसता !
हर कलुष मिटाती कर पावन
चलती फिरती आग बनो तुम,
अपनेपन की गर्माहट भर
कोमल ज्योतिर राग बनो तुम !
बहा करो उन्मुक्त पवन सम
सूक्ष्म भाव अनंत के धारे,
सारे जग को मीत बनाओ
शुभ सुवास के बन फौवारे !
ग्रहण करे उर साम्य-विषमता
वसुंधरा सा पोषण देकर,
प्रेम उजास बहे अंतर से
इस जग का सहयोगी बनकर !
नई दृष्टि से जग को देखो
सहज ऊर्जा को बहने दो,
मनस बने अब धार नीर की
कर साकार मधुर स्वप्नों को !
जितना दिया अधिक मिलता है
सुख से जीवन भरपूर करो,
खुले हृदय से ग्रहण करो फिर
हो गुजर स्वयं से दूर करो !
रात-दिवस यह कहने आया
विश्व नागरिक बन जीना है,
अब सीमा आकाश ही बने
जब घर धरती का सीना है !
नई दृष्टि से जग को देखो
जवाब देंहटाएंसहज ऊर्जा को बहने दो,
मनस बने अब धार नीर की
कर साकार मधुर स्वप्नों को ....
प्रभावशाली व भावपूर्ण संयोजन। ।।।।। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया।।।
स्वागत व आभार !
हटाएंजितना दिया अधिक मिलता है
जवाब देंहटाएंसुख से जीवन भरपूर करो,
खुले हृदय से ग्रहण करो फिर
हो गुजर स्वयं से दूर करो.. बहुत ही सारगर्भित पंक्तियां..सार्थक संदेश भरी रचना..
स्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2021) को "कंकड़ देते कष्ट" (चर्चा अंक- 3963) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएं"रात-दिवस यह कहने आया
जवाब देंहटाएंविश्व नागरिक बन जीना है,
अब सीमा आकाश ही बने
जब घर धरती का सीना है !"
बहुत अच्छी बात कही आपने।
स्वागत व आभार !
हटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंकितनी सुन्दरता से आप सबों का हृदय खोल कर भाव ग्रहण भी करवा देतीं हैं ।
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