सोमवार, अप्रैल 19

ज्यों धूप और पानी


ज्यों धूप और पानी


 

दिल में लरजता जो है 

 रग-रग में कम्प भरता,  

वह भिगो रहा अहर्निश 

जो लौ को ओट देता !


सम्भालता सदा है 

पल भर न साथ छोड़े, 

वह जिंदगी का मानी

धड़कन वही है तन में !


बरसता वही हर सूं

वह चाँद बन चमकता, 

गर ढूंढना उसे चाहें 

कोई पता ना देता !


ऐसे वह बंट रहा है 

ज्यों धूप और पानी, 

छुपा नहीं कहीं भी 

नजर आये न हैरानी ! 


महसूस करे कोई 

एक पल भी न बिसरता,  

जिसे पाके कुछ न चाहा

वैसा न कोई  दूजा  !


गर मिल गया किसी को 

कुछ और न वह मांगे, 

उसके ही संग सोये 

संग सुबह रोज जागे !


उसे क्या कोई कहेगा 

वह शून्य है या पूरा, 

हर होश वह भुला दे 

कोई जान न सकेगा !


उसे भूलना न सम्भव 

अनोखा निगेहबां हैं, 

मधुरिम वह स्वप्न देता 

हर दिल में आ बसा है !

 

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी कविता गूढ़ है। मर्म समझने की कोशिश कर रहा हूँ।

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    1. काव्य को समझने की जरूरत नहीं है, महसूस कर लीजिए

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  2. बहुत सुन्दर रचना।
    विचारों का अच्छा सम्प्रेषण किया है
    आपने इस रचना में।

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  3. वाही है जो अद्रश्य है पर सब जगह व्याप्त है ...
    सुन्दर, भावपूर्ण दार्शन लिए ...

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