शुक्रवार, अप्रैल 23

दीप आरती का जब जगमग

दीप आरती का जब जगमग

छायाओं के पीछे भागे 

जब सच से ही मुख मोड़ लिया, 

जीवन का जो सहज स्रोत था  

शुभ नाता उससे तोड़ लिया !


अर्ध्य चढ़ाते थे रवि को जब  

जुड़ जाते थे परम स्रोत से, 

तुलसी, कदली को कर सिंचित 

वृंदावन भीतर उगते थे !


कर परिक्रमा शिव मंदिर की 

खुद को भी तो पाया होगा,

दीप आरती का जब जगमग 

आत्म ज्योति को ध्याया होगा !


किन्तु बनाया साधन उनको

जो स्वयं में हैं अनुपम साध्य, 

नित्यकर्म का सौदा करके 

कहते भजा तुझको आराध्य !


यह तो जीवन का उत्सव  था 

ना यह  कला मांगने की थी ,

शुभ सुमिरन से मान मिलेगा 

ऐसी लघु बुद्धि तो नहीं थी !


जग छाया है कहाँ मिलेगी 

जबकि मन उजियार से प्रकटा, 

अंधकार के पाहन ने ही 

मार्ग सहज उजास का रोका !


 

8 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२४-०४-२०२१) को 'मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे'(चर्चा अंक- ४०४६) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. किन्तु बनाया साधन उनको

    जो स्वयं में हैं अनुपम साध्य,

    नित्यकर्म का सौदा करके

    कहते भजा तुझको आराध्य !

    मन के भावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं ... बहुत सुन्दर सृजन

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  3. ठीक कहा आपने अनीता जी। बहुत अच्छी कविता है यह्।

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  4. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
    हर शब्द एहसास की छुअन लेकर अंकित हुआ है।

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