दीप आरती का जब जगमग
छायाओं के पीछे भागे
जब सच से ही मुख मोड़ लिया,
जीवन का जो सहज स्रोत था
शुभ नाता उससे तोड़ लिया !
अर्ध्य चढ़ाते थे रवि को जब
जुड़ जाते थे परम स्रोत से,
तुलसी, कदली को कर सिंचित
वृंदावन भीतर उगते थे !
कर परिक्रमा शिव मंदिर की
खुद को भी तो पाया होगा,
दीप आरती का जब जगमग
आत्म ज्योति को ध्याया होगा !
किन्तु बनाया साधन उनको
जो स्वयं में हैं अनुपम साध्य,
नित्यकर्म का सौदा करके
कहते भजा तुझको आराध्य !
यह तो जीवन का उत्सव था
ना यह कला मांगने की थी ,
शुभ सुमिरन से मान मिलेगा
ऐसी लघु बुद्धि तो नहीं थी !
जग छाया है कहाँ मिलेगी
जबकि मन उजियार से प्रकटा,
अंधकार के पाहन ने ही
मार्ग सहज उजास का रोका !
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२४-०४-२०२१) को 'मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे'(चर्चा अंक- ४०४६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
किन्तु बनाया साधन उनको
जवाब देंहटाएंजो स्वयं में हैं अनुपम साध्य,
नित्यकर्म का सौदा करके
कहते भजा तुझको आराध्य !
मन के भावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं ... बहुत सुन्दर सृजन
स्वागत व आभार संगीता जी !
हटाएंठीक कहा आपने अनीता जी। बहुत अच्छी कविता है यह्।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंहर शब्द एहसास की छुअन लेकर अंकित हुआ है।