अस्तित्त्व
जब अंतर झुका हो
तब अस्तित्त्व बरस ही जाता है
कुछ नहीं चाहिए जब
तब सब कुछ अपनत्व की
डोर से बंध जाता है
कदमों को धरा का परस
माँ की गोद सा लगता
सिर पर आकाश का साया
पिता के मोद सा
हवा मित्र बनकर सदा साथ है
जल मन सा बहता भीतर
अनल प्रेम की सुवास है
हर घड़ी कोई आसपास है
जब अनंत का स्पर्श किया जा सकता हो
तो कोई क्यों बंधन सहे
जब अनायास ही बरसता हो आनंद
तो क्यों कोई क्रंदन बहे
बस जाग कर देखना ही तो है
स्वप्न में जी रहे नयनों को
अपना मुख मोड़ना ही तो है
जब अनंत का स्पर्श किया जा सकता हो
जवाब देंहटाएंतो कोई क्यों बंधन सहे
जब अनायास ही बरसता हो आनंद
तो क्यों कोई क्रंदन बहे
बेहतरीन भावों को उकेरा है । सुंदर कृति ।
बहुत गहरी बात इन पंक्तियों में छुपी है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
कितना तृप्तिदायक होता है यह परिपूर्णता का बोध,जो एक बार भी पा सके उसका सौभाग्य!
जवाब देंहटाएंअसीमानंद की अनुभूति ।
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधीजनों का स्वागत व आभार !
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