गुरुवार, अगस्त 19

इक अकुलाहट प्राणों में

इक अकुलाहट प्राणों में

 

इक दुःख की चाहत की है

जो मन को बेसुध कर दे,

कुछ कहने, कुछ ना कहने

दोनों का अंतर भर दे !

 

इक पीड़ा माँगी उर ने

जो भीतर तक छा जाये,

फिर वह सब जो आतुर है ​

आने को बाहर आये !

 

इक बेचैनी सी हर पल

मन में सुगबुग करती हो,

इस रीते अंतर्मन का

कुछ खालीपन भरती हो !

 

इक अकुलाहट प्राणों में

इक प्यास हृदय में जागे,

सीधे सपाट मरुथल में

चंचल हरिणी सी भागे 

 

11 टिप्‍पणियां:

  1. इसलिए तो महाजनों ने वरदान में एक-आध पाव दु:ख की कामना करते रहे ताकि प्रभू और स्वयं का स्मरण सतत् होता रहे । अति सुन्दर भाव एवं कथ्य ।

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    1. सही कहा है अमृता जी, कुंती ने भी कृष्ण से यही प्रार्थना की थी, स्वागत व आभार !

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  2. "दुःख में सुमिरन सब करै ",अत्यंत प्रभावशाली रचना !!

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  3. कुछ कहने, कुछ ना कहने दोनों का अंतर भर दे। इस जीवन-दर्शन का अपना मूल्य है अनीता जी। अच्छी काव्याभिव्यक्ति है यह आपकी।

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    1. जब सुनने वाला बिन कहे ही समझ जाये तब ही ऐसा सम्भव है, स्वागत व आभार !

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  4. सुंदर मनन चिंतन,सुंदर जीवन दर्शन।

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  5. जीवन में ऐसा चिंतन किसी न किसी मार्ग पर ले ही जाता है ...

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