खो जाए जिसके दर पे, ‘मैं’ का यह सिलसिला
उसके यहाँ ही जाकर, सिर को झुकाना होगा
फ़िक्रों को छोड़ देना, रस्ते में जाते-जाते
हर सुख वहीं मिलेगा, जहाँ नाम उसका होगा
वही जानता एक हुआ जो
सुख को चुन लेते फूलों सा
दुःख के काँटे नहीं माँगते,
मधुर याद से दामन भर लें
हर कटुता को रहे भुलाते !
मन की ऐसी ही माया है
अनुयायी है राग-द्वेष का,
भला-बुरा औ' प्रेम घृणा में
बाँटा जग को पूर्ण न देखा !
दो में बाँटा जिस पल हमने
भ्रम बढ़ता जाता जीवन में,
पार हुआ जो देखे इसको
वही टिका रहता है सच में !
रात छोड़कर दिन को पकड़े
ऐसा कहाँ हुआ है संभव,
मिले लक्ष्मी नारायण तजे
शिव बिना मिले शक्ति असंभव !
डूबे दो में, पार हुए जब
एक में अंतर को विश्राम,
वही जानता एक हुआ जो
टुकड़ों में नहीं मिलते राम !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 10 अगस्त 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी!
हटाएंडूबे दो में, पार हुए जब
जवाब देंहटाएंएक में अंतर को विश्राम,
वही जानता एक हुआ जो
टुकड़ों में नहीं मिलते राम !---सुंदर सृजन..।
स्वागत व आभार !
हटाएंदो में बाँटा जिस पल हमने
जवाब देंहटाएंभ्रम बढ़ता जाता जीवन में,
पार हुआ जो देखे इसको
वही टिका रहता है सच में !
फिर तो संत हो जाएं सब । सब अच्छा ही तो माँगते । तटस्थ कहाँ हो पाते । सुंदर रचना ।
तटस्थ हुए बिना मन का संशय मिटता भी तो नहीं, आभार !
हटाएंसच है इश्वर के नाम से बड़ा सुख कहाँ ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ...
स्वागत व आभार !
हटाएंटुकड़ों में नहीं मिलते राम। सही कहा आपने कि तटस्थ हुए बिना बात नहीं बनती।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंअति सुन्दर भाव । हृदय रमणीय ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी!
हटाएं