देह दीप में तेल हृदय यह
ज्योति पुष्प उर के उपवन में
खिला सदा है उसे निहारें,
सुख का सागर भीतर बहता
सदा रहा है उसे पुकारें !
नयनों में उसी का उजाला
अंतर में विश्वास बना है,
वही चलाता दिल की धड़कन
रग-रग में उल्लास घना है !
ज्योति वह दामिनी बन चमके
सूर्य चंद्रमा में भी दमके,
उसी ज्योति से पादप,पशु हैं
वही ज्योति हर जड़ चेतन में !
देह दीप में तेल हृदय यह
ज्योति समान आत्मा ही है,
माटी का हो या सोने का
दीपक आख़िर दीपक ही है !
ऐसे ही हैं तेल जगत में
कुछ सुवास से भरे हुए मन,
कई आँखों में धुआँ भरते
किंतु ज्योति न होती कभी कम !
सुंदर रचना ❤️
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 02 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार!
हटाएंदर्पण सदृश भाव । देखो और बस देखते रहो । अति पवित्र कृति ।
जवाब देंहटाएंदेह दीप में तेल हृदय यह
जवाब देंहटाएंज्योति समान आत्मा ही है,
माटी का हो या सोने का
दीपक आख़िर दीपक ही है !
वाह!!!!
बहुत ही लाजवाब।
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंरवींद्र जी, अमृता जी, अनुराधा जी व सुधा जी आप सभी का स्वागत व आभार!
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