हम खुद में कितने रहते हैं
गौर किया है कभी ठहर कर
इत-उत क्यों डोला करते हैं
कभी यहाँ का कभी वहाँ का
हाल व चाल लिया करते हैं
बस खुद का ही रस्ता भूले
दुनिया भर घूमा करते हैं
सब इस पर निर्भर करता है
हम खुद में कितने रहते हैं
मन में हैं पूरे के पूरे
कमियों का रोना रोते हैं
अपनी हालत जानें खुद से
राज यही भूला करते हैं
खो जाता है मन आ खुद में
हम ही रूप धरा करते हैं
खुद को आंकना कठिन होता है .... क्यों कि स्वयं को हर कोई हर बात में सही समझता है ..... कमियां दूसरों में ही निकाली जाती हैं . दूसरों के बारे में बातें करना तो सबसे प्यारा शगल है ....
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं आप, खुद को जिसने आंक लिया वह मुक्त हो जाता है
हटाएंखुद में कितना रह सकता है इंसान ... खुद को समझ ही कहाँ पाता है ...
जवाब देंहटाएंकई अवसाद घेरे रहते हैं मन को ... निकलना आसान कहाँ होता है इस भटकते मन को ... जाने क्या ढूंढता रहता है पागल मन ...
शायद उसी एक को ढूँढता है मन...स्वागत व आभार!
हटाएंबहुत ही शानदार और गहरी बात कही है आपने रचना के मध्यम से!
जवाब देंहटाएंखुद को आंकना बहुत ही कठिन है क्योंकि अपनी कमी आसानी से नज़र नहीं आती! और अगर आती भी है तो उसे सही ठहराने के लिए हमारे पास तर्क उपलब्ध होते हैं!