मंगलवार, नवंबर 30

हम खुद में कितने रहते हैं


हम खुद में कितने रहते हैं 


गौर किया है कभी ठहर कर 

इत-उत क्यों डोला करते हैं 


कभी यहाँ का कभी वहाँ का 

हाल व चाल लिया करते हैं 


बस खुद का ही रस्ता भूले 

दुनिया भर घूमा करते हैं 


सब इस पर निर्भर करता है 

हम खुद में कितने रहते हैं 


मन में हैं पूरे के पूरे 

कमियों का रोना रोते हैं 


अपनी हालत जानें खुद से 

राज यही भूला करते हैं 


खो जाता है मन आ खुद में 

हम ही रूप धरा करते हैं 


5 टिप्‍पणियां:

  1. खुद को आंकना कठिन होता है .... क्यों कि स्वयं को हर कोई हर बात में सही समझता है ..... कमियां दूसरों में ही निकाली जाती हैं . दूसरों के बारे में बातें करना तो सबसे प्यारा शगल है ....

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    1. सही कह रही हैं आप, खुद को जिसने आंक लिया वह मुक्त हो जाता है

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  2. खुद में कितना रह सकता है इंसान ... खुद को समझ ही कहाँ पाता है ...
    कई अवसाद घेरे रहते हैं मन को ... निकलना आसान कहाँ होता है इस भटकते मन को ... जाने क्या ढूंढता रहता है पागल मन ...

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    1. शायद उसी एक को ढूँढता है मन...स्वागत व आभार!

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  3. बहुत ही शानदार और गहरी बात कही है आपने रचना के मध्यम से!
    खुद को आंकना बहुत ही कठिन है क्योंकि अपनी कमी आसानी से नज़र नहीं आती! और अगर आती भी है तो उसे सही ठहराने के लिए हमारे पास तर्क उपलब्ध होते हैं!

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