अभी मिलन घट सकता उससे
ना अतीत जंगल के उगते
ना उपवन भावी के जिसमें,
वर्तमान का पुष्प अनोखा
खिलता उसी मरूद्यान में !
एक स्वप्न से क्या मिल सकता
जिससे ज़्यादा ना दे अतीत,
जाल कल्पना का भी मिथ्या
भावी के सदा गाता गीत !
एक बोझ का गट्ठर लादे
कितना कोई चल सकता है,
यादों का सैलाब डुबाता
भव सागर कब तर सकता है !
कल की फ़िक्र आज को खोया
संवरे अब बने कल सुंदर,
इस पल में हर राज छुपा है
पहचानें ! क्यों टालें कल पर !
अभी-अभी इक सरगम फूटी
अभी अभी बरसा है बादल,
अभी मिलन घट सकता उससे
है परे काल से सदा अटल !
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२४-१२ -२०२१) को
'अहंकार की हार'(चर्चा अंक -४२८८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी !
हटाएंकल की फ़िक्र आज को खोया
जवाब देंहटाएंसंवरे अब बने कल सुंदर,
इस पल में हर राज छुपा है
पहचानें ! क्यों टालें कल पर !
बहुत ही शानदार वाला जवाब सृजन आपने एकदम सही कहा कल की फिकर में आज को खोया ! आज को खुल कर जीना चाहिए कल किसने देखा, कल का क्या पता हो या ना हो....
स्वागत व आभार मनीषा जी !
हटाएंबेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण रचना है ...
जवाब देंहटाएंअनुराधा जी, दिगम्बर जी व भारती जी आप सभी का स्वागत व आभार!
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