निरभ्र गगन खुलता जाता
नील वितान धरा को थामे
मन मेघ देख क्यों कँप जाता,
पल भर में छँट जाते बादल
नीरव अंबर खुलता जाता !
काले धूसर घनघोर मेघ
कहाँ कभी ढक पाये नभ को
बना वही है आश्रय स्थल फिर
अकुलाहट क्यों हो अंतर को !
ज़रा खोल दें खिड़की मन की
या गवाक्ष की ओट गिरा दें,
खुला-खुला सा नभ दिख जाए
नज़र उठा भर उधर देख लें !
चाहे मीलों दौड़ लगाए
या पंछी सा तिरता जाए,
वही विस्तीर्ण अनंत प्रदेश
हर सीमा से मुक्त कराए !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
हटाएंचाहे मीलों दौड़ लगाए
जवाब देंहटाएंया पंछी सा तिरता जाए,
वही विस्तीर्ण अनंत प्रदेश
हर सीमा से मुक्त कराए !
बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीया अनीता जी 🙏
स्वागत व आभार कामिनी जी!
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-4-22) को "कोटि-कोटि वन्दन तुम्हें, पवनपुत्र हनुमान" (चर्चा अंक 4403) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार!
हटाएंअहा! मन की जंग लगी खिड़की को झटक कर खोल दिया। जैसे आनन्द का झरोखा खुल गया। बहुत ही सुन्दर भाव।
जवाब देंहटाएंकविता के मर्म को बूझती सुंदर प्रतिक्रिया!
हटाएंचाहे मीलों दौड़ लगाए
जवाब देंहटाएंया पंछी सा तिरता जाए,
वही विस्तीर्ण अनंत प्रदेश
हर सीमा से मुक्त कराए !
अप्रितम, सुन्दर मनभावन, चित प्रकृतिमय कर दिया
स्वागत व आभार अडिग जी, कविता आपको अच्छी लगी, जानकर आनंद हुआ!
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