चाँद बनकर
मैंने चाँद बनकर धरा को देखा
लहू से सराबोर
लोगों को झूमते गाते देखा
संग बहते हुए हवाओं के
इक बूँद श्वास के लिए तरसते देखा
अनंत रिक्तता में छा गया था वजूद मेरा
चंद चीजों के लिए बिलखते देखा
वह जो उड़ सकता था पल में
जमीं से फलक तक
धीमे-धीमे से उसे सरकते देखा
मैं ही मालिक था चाँद तारों का
चंद सिक्कों के लिए झगड़ते देखा
जला सूरज सा कोई दिन-रात सदा
भय से अंधेरों में किसी को सिसकते देखा !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 19 अप्रैल 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार!
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआज की परिस्थितियों से त्रस्त मन ऐसा ही सोचेगा ।
जवाब देंहटाएंगहन सृजन
स्वागत व आभार संगीता जी !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंइसीलिए चाँद पर दाग़ है क्या ?
जवाब देंहटाएंथोड़ा ऊपर उठकर सब दिखता है...विचारों से ऊपर उठेंतो ....बस दया भावना ही बचेगी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सार्थक सृजन ।
वाह!सुधा दी 👌
हटाएंनिशब्द हूँ आपके सृजन पर प्रत्येक पंक्ति सराहनीय 👌
जवाब देंहटाएंमैंने चाँद बनकर धरा को देखा
लहू से सराबोर
लोगों को झूमते गाते देखा... कटु सत्य।
सादर
नूपुर जी, सुधा जी व अनीता जी आप सभी का हृदय से आभार व स्वागत !
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