बेबस हृदय बना है दर्शक
आज समाज में एक अविश्वास का वातावरण फैला है, सदियों से जो साथ रहते आये थे, उनमें दूरियाँ बढ़ रही हैं, कितने प्रश्न हैं, जिनके उत्तर आपसी सौहार्द में ही छिपे हैं
एक याद भूली बिखरी सी
अब भी जैसे साथ चल रही,
सपना होगी सत्य नहीं, जो
विकट दुराशा हृदय छल रही !
कभी हँसा होगा यह मन भी
होता खुद को ही कहाँ यकीं,
कभी चले होंगे संग हम
सपनों की सी बात लग रही !
जाने किस दुविधा ने जकड़ा
कैसे कंटक उग हैं आये,
शब्दों के अम्बर में ढककर
कितने विषधर तीर चलाये !
किस गह्वर से उपजी पीड़ा
बुझा-बुझा सा दिल का दीपक,
मैत्री का दामन थामा था
बेबस हृदय बना है दर्शक !
कंपित श्वासें नयन ढगे से
दिल की धड़कन बढ़ती जाती,
बरसों में जो चैन मिला था
कहाँ गँवायी अनुपम थाती !
क्या कोई आशा है अब भी
हे करूणामय ! तुम्हीं आश्रय,
कदम-कदम पर हाथ थाम लो
सिद्ध हो सके पावन आशय !
जाने किस दुविधा ने जकड़ा
जवाब देंहटाएंकैसे कंटक उग हैं आये,
शब्दों के अम्बर में ढककर
कितने विषधर तीर चलाये !
बहुत सुंदर प्रस्तुति |
स्वागत व आभार रचना जी!
हटाएंरिश्ता चाहे दोस्ती का हो या पारिवारिक ....संभालना चाहिए ।।
जवाब देंहटाएंसंदेशात्मक रचना ।
सही कहा है आपने,स्वागत व आभार संगीता जी!
हटाएंवाह , आत्मीय सम्बन्ध के लिये समर्पण जितना ज़रूरी है , सम्हालने का दायित्त्व भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है . जहाँ हताशा छल या अविश्वास होता है , वहां हृदय का कोई स्थान नहीं है .
जवाब देंहटाएंशत-प्रतिशत सही कहा है आपने गिरिजा जी! आभार!
जवाब देंहटाएं