यज्ञ भीतर चल रहा है
श्वास समिधा बन सँवरती
प्रीत जगती की सुलगती,
मोह कितना छल रहा था
सहज सुख अब पल रहा है !
मंत्र भी गूजें अहर्निश
ज्योति माला है समर्पित,
कामना ज्वर जल रहा था
अहम मिथ्या गल रहा है !
अनवरत यह यज्ञ चलता
प्राण दीपक नित्य जलता,
पास न कुछ हल रहा था
उम्र सूरज ढल रहा है !
खोजता था मन युगों से
छला गया स्वर्ण मृगों से,
व्यर्थ भीतर मल रहा था
परम सत्य पल रहा है !
चाह थी नीले गगन की
मृत्यू देखी हर सपन की,
स्नेह घृत भी डल रहा था
द्वैत अब तो खल रहा है !
चाह थी नीले गगन की
जवाब देंहटाएंमृत्यू देखी हर सपन की,
सुंदर काव्य पंक्तियां
स्वागत व आभार मनोज जी !
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 12 अक्टूबर 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
बहुत बहुत आभार पम्मी जी !
हटाएंमंत्र भी गूजें अहर्निश
जवाब देंहटाएंज्योति माला है समर्पित,
कामना ज्वर जल रहा था
अहम मिथ्या गल रहा है !
अहम को स्वाहाः कर दे तब तो जीवन ही सफल हो जाये
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति अनीता जी,सादर नमन
स्वागत व आभार कामिनी जी !
हटाएंश्वास समिधा बन सँवरती
जवाब देंहटाएंप्रीत जगती की सुलगती,
मोह कितना छल रहा था
सहज सुख अब पल रहा है !
सुंदर
स्वागत व आभार यशोदा जी!
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4580 में दी जाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
बहुत बहुत आभार विर्क जी!
हटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
हटाएंसारगर्भित दर्शन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अनिता जी।
स्वागत व आभार कुसुम जी!
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