अभी शेष है जीना
जीने की तैयारी में ही
लग जाती है सारी ऊर्जा
घर को सजाते-सँवारते
थक जाते हैं प्राण
मन को सहेजते-सहेजते
चुक जाती है शक्ति
फिर कब जियेगा कोई
और बिखेरेगा प्रेम
संगीत सुनेगा
पंछियों और हवाओं का
साज बैठाते-बैठाते ही
शाम ढल जाती है
अभी सुर सध ही नहीं पाता
और थम जाती है रफ्तार
हिसाब-किताब करते
रह जाता है पीछे हर बार इजहार !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-10-22} को "डाकिया डाक लाया"(चर्चा अंक-4578) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार कामिनी जी!
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-10-2022) को "ब्लॉग मंजूषा" (चर्चा अंक-4579) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
हटाएंदोनों कामों में ताल-मेल बैठे तो जीवन-राग पूरा हो .
जवाब देंहटाएंसही है, आभार प्रतिभा जी !
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना बधाई
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अभिलाषा जी!
हटाएंसही कहा कब करेगा कोई...जैसे एक जिंदगी कम पड़ जाती है एक छोर पकड़ा तो दूसरा रह गया...
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन।
वाह ! कितनी सहजता से आपने कविता के सार को व्यक्त कर दिया, स्वागत है सुधा जी !
हटाएंबिखेरेगा प्रेम
जवाब देंहटाएंसंगीत सुनेगा
पंछियों और हवाओं का
साज बैठाते-बैठाते ही
शाम ढल जाती है
............लाजवाब सृजन।