किंतु न जब तक आया मानव
पग-पग पर बलिहारी अंतर
कण-कण में छवि सरस समायी,
जाने कब तू उतरा नभ से
कैसे पावन धरा बनायी !
पाहन, धूलि, पठार जहाँ तक
निहारती हैं निगाहें दृश्य,
पादप, पेड़, नदी, निर्झर में
अन्तर्हित वह अनाम अदृश्य !
मीन, कीट, सरिसर्प अनोखे
खग, मृग, हरि, शावक, सिंहनियाँ,
भाँति-भाँति के कुसुम खिले हैं
तितली, अलि, अलिंद, मधुकरियाँ !
किंतु न जब तक आया मानव
सृष्टि अधूरी सी लगती थी,
दिव्य चेतना रही तिरोहित
मन, मेधा उसमें जगती थी !
मन से जन्म हुआ मानव का
श्रेष्ठ बुद्धि का है अधिकारी
किंतु डुबाता अहंकार जब
मानस रहा नहीं अविकारी !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-11-2022) को "दोहा छन्द प्रसिद्ध" (चर्चा अंक-4613) पर भी होगी।--
जवाब देंहटाएंकृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 16 नवंबर 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार पम्मी जी!
हटाएंबलिहारी इस सुन्दर कृति के सर्जक की जिनकी लेखनी उपनिषद् सम है। जिसे बस हृदयंगम ही किया जा सकता है।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी, सर्जक तो एक मात्र वही है
हटाएंमन से जन्म हुआ मानव का
जवाब देंहटाएंश्रेष्ठ बुद्धि का है अधिकारी
किंतु डुबाता अहंकार जब
मानस रहा नहीं अविकारी !
सत्य !
स्वागत व आभार मीना जी!
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जवाब देंहटाएंमन से जन्म हुआ मानव का
श्रेष्ठ बुद्धि का है अधिकारी
किंतु डुबाता अहंकार जब
मानस रहा नहीं अविकारी !
परमात्मा की अनमोल कृति ने अपनी ही कदर ना जानी,बहुत ही सुंदर सृजन अनीता जी, सादर नमन आपको
स्वागत व आभार कामिनी जी !
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी !
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