एक लपट मृदु ताप भरे जो
बैंगनी फूलों की डाल से
फूल झर रहे झर-झर ऐसे,
लहरा कर इक पवन झकोरा
सहलाये ज्यों निज आँचल से !
याद घेर लेती है जिसकी
बनकर अनंत शुभ नील गगन,
कभी गूंजने लगता उर में
अनहद गुंजन आलाप सघन !
एक लपट मृदु ताप भरे जो
हर लेती हृदय का संताप,
सुधियाँ किसी अरूप तत्व की
बनी रहतीं फिर भी अनजान !
सागर-लहर, गगन-मेघा सा
नाता उस असीम से उर का,
कौन समाया किस पल क़िसमें
ज्योति अगन या गंध सुमन में !
बहुत सुन्दर है |
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 11 जनवरी 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
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