जागरण
रात ढलने को है
झूम रहा हर सिंगार हौले-हौले
बस कुछ ही पल में
हर पुष्प डाली से झर जाएगा
श्वेत कोमलता से
धरा का आँचल भर जाएगा
कुनमुनाने लगे हैं पंछी बसेरों में
दूर से आ रही कूक
सूने पथ पर कदम बढ़ा रहे
मुँह अंधेरे उठ जाने वाले
उषा मोहक है
उसकी हर शै याद दिलाती
उस जागरण की
जब चिदाकाश पर उगने को है
आत्मा का सूरज
कुछ डोलने लगा है भीतर
और झर गई हैं अंतर्भावनाएँ
उसके चरणों में
गूँजने लगा है कोई गीत
सहला जाता है अनाम स्पर्श
विरह की अग्नि में तपे उर को
भोर की प्रतीक्षा में
यह अहसास होने लगा है
एक दिन ऐसी ही होगी
अंतर भोर !