बुधवार, नवंबर 13

ऋण

ऋण 


पिता आकाश है, माँ धरा 

जो अपने अंश से 

पोषण करती है संतान का 

पिता सूरज है, माँ चंद्रमा 

जो शीतल किरणों से 

हर दर्द पर लेप लगाता है 

पिता पवन है, माँ अग्नि 

जो नेह की उष्मा से 

जीवन में रंग भरती है 

पिता सागर है, माँ नदिया 

जो मीठे जल से प्यास बुझाती है 

पिता है, तो माँ है 

आकाश के बिना धरा कहाँ होगी 

अंततः सूरज से ही उपजा है चाँद 

वाष्पित सागर ही नदी है 

दोनों पूरक हैं इकदूजे के 

और इस तरह हर कोई 

ऋणी है माँ-पिता का ! 


रविवार, नवंबर 10

गोपी पनघट-पनघट खोजे

गोपी पनघट-पनघट खोजे


सुंदरता की खान छिपी है 

प्रेम भरा कण-कण में जग के , 

छोटा सा इक कीट चमकता 

रोशन होता सागर तल में !


बलशाली का नर्तन अनुपम 

भीषण पर्वत, गहरी खाई, 

अंतरिक्ष अगाध गहरा है 

क़ुदरत जाने कहाँ समाई !


खोज रहे हैं कब से मानव 

महातमस छाया है नभ में, 

शायद पा सकते हैं उसको 

धरित्री के भीतर अग्नि में !


नटखट कान्हा छुप जाता ज्यों 

गोपी पनघट-पनघट खोजे, 

उसके भीतर छिपा हुआ है 

घूँघट उघाड़ वहीं न देखे !


रस्ता भटक गया जो राही 

भटक-भटक कर ही पहुँचेगा, 

गिरते-पड़ते, रोते-हँसते 

अपनी भूलों से सीखेगा !


शुक्रवार, नवंबर 8

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

दुनिया दुख का दूसरा नाम 

कहते आये सुबह औ'शाम, 

देख न पाये उड़ते पंछी 

फूलों से नहीं दुआ-सलाम !


जान-जान कर कुछ कब आया

प्रेम लहर इक भिगो गयी उर, 

एक सफ़र पर सबको जाना 

मिटने से क्यों लगता है डर !


माना अभी-अभी आये हैं 

दूर अतीव  दूर जाना है, 

इक दिन तो मंज़िल आएगी 

गीत पूर्णता का गाना है !


एक बीज से वृक्ष पनपता 

एक अणु में नृलोक समाया, 

एक कोशिका से जन्मा नर 

तन में सारा ज्ञान छिपाया !


सत्य देखना जिस दिन सीखा 

शृंग हिमालय के उठ आये, 

मन के पार उगे हैं उपवन 

कुंज गली में श्याम समाये !


मंगलवार, नवंबर 5

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 


जब सौंप दिया है स्वयं को 

अस्तित्त्व के हाथों में 

तब भय कैसा ?

जब चल पड़े हैं 

कदम उस पथ पर

उस तक जाता है जो 

तो संशय कैसा  ?

जब बो दिया है बीज प्रेम का  

अंतर में उसने ही 

तो उसके खिलने में देरी कैसी  ?

जब भीतर उतर आये हैं 

शांति के कैलाश 

तो गंगा के अवतरण पर 

भीगने से संकोच कैसा  ?

अपना अधिकार लेने में

 यह झिझक क्यों है 

हम उसी के हैं, और वही 

हम बनकर जगत में आया है 

जब जान लिया है या सत्य 

तब यह नाटक कैसा  ?

उसी को खिलने दो 

बढ़ने दो 

कहने दो 

अब अपनी बात चलाने का 

यह आग्रह कैसा  ?

डूब जाओ 

उसके असीम प्रेम में 

किसी तरह 

वह यही तो चाहता है 

फिर उससे भिन्न होने का 

भ्रम कैसा ? 


रविवार, नवंबर 3

शांतता

शांतता 


आज हम थे और सन्नाटा था 

सन्नाटा ! जो चारों और फैला था 

बहा आ रहा था न जाने कहाँ से 

अंतरिक्ष भी छोटा पड़ गया था जैसे 

शायद अनंत की बाहों से झरता था !


आज मौन था और थी चुप्पी घनी 

सब सुन लिया जबकि 

कोई कुछ कहता न था 

कैसी शांति और निस्तब्धता थी उस घड़ी 

जैसे श्वास भी आने से कंपता था!


 कोई बसता है उस नीरवता में भी

उससे मिलना हो तो चुप को ओढ़ना होगा 

छोड़कर सारी चहल-पहल रस्तों की 

मन को खामोशी में इंतज़ार करना होगा 

यह जो आदत है पुरानी उसकी 

बेवजह शोर मचाने की 

छोड़ कर बैठ रहे पल दो पल 

 उस एकांत से मिल पायेगा तभी !