मंगलवार, दिसंबर 17

मन से कुछ बातें

मन से कुछ बातें



मन ! निज गहराई में पा लो, 

एक विशुद्ध हँसी का कोना 

 बरबस नजर प्यार की डालो 

बहुत हुआ अब रोना-धोना !


किस अभाव का रोना रोते 

 उपज पूर्ण से नित्य पूर्ण हो, 

 सदा संजोते किस कमी को

खुद अनंत शक्ति का पुंज हो !


स्वयं ‘ध्यान’ तुम ‘ध्यान’ चाहते 

लोगों का कुछ ‘ध्यान’ बँटाकर 

निज ताक़त को भुला दिया है 

इधर-उधर से माँग-माँग कर !


आख़िर कब तक झुठलाओगे 

अपनी महिमा के पर्वत को, 

नज़र उठाकर ऊपर देखो 

उत्तंग शिखर छूता नभ को !


रोज-रोज का वही पुराना 

छोड़ो भी अब राग बजाना, 

कृष्ण बने सारथी तुम्हारे 

कैसे  कोई चले  बहाना !




बुधवार, दिसंबर 11

मिलन


मिलन 


जैसे कोई अडिग हिमालय 

मन के भीतर प्रकट हो रहा, 

उससे मिलना ऐसे ही था 

उर उसका ही घटक हो रहा ! 


छूट गयी हर उलझन पीछे 

सम्मुख था एक गगन विशाल, 

जिससे झरती थी धाराएँ 

भिगो रही थीं तन और  भाल !


डूबा था अंतर ज्यों रस में 

भीतर-बाहर एक हुआ था, 

एक विशुद्ध चाँदनी का तट 

जैसे चहूँ ओर बिखरा सा !




रविवार, दिसंबर 8

तू

तू 


तू चाहता है 

मैं तुझे सुनूँ 

इसीलिए तूने मेरे कानों में संगीत भर दिया 

तू चाहता है 

मैं तुझे पढ़ूँ 

इसीलिए तूने 

मेरे हाथों में किताबें थमा दीं 

तू चाहता है 

मैं तुझे लिखूँ 

इसीलिए तूने 

मेरे जीवन में चाहत भर दी 

तू चाहता है 

मैं तुझे चाहूँ 

इसीलिए तूने मेरे मन में 

हँसी का बीज बो दिया 



शुक्रवार, दिसंबर 6

यज्ञ

यज्ञ 

एक यज्ञ चलता है बाहर 

शुभ कर्म बनें अगरु व चंदन, 

एक यज्ञ चलता है भीतर 

श्वासों में हो पल-पल सुमिरन !  


अग्नि वही समिधा भी वह है 

वेदी व ‘होता’ भी वही है, 

नव प्रेरणा उमंग ह्रदय की 

उलझ-पुलझ में वही सही है ! 


बरस रहा मेघ के संग जो 

नीर वही नदिया में बहता, 

तृषा बुझाता आकुल उर की 

अखिल विश्व को ढक कर रहता !


बुधवार, दिसंबर 4

शून्यता

शून्यता 


‘कुछ होने’ की दौड़ छोड़कर 

जब जान लेता है कोई 

कि होना मात्र ही 

शुद्ध आनंद होना है 

तब भयमुक्त हो जाती है 

उसकी समृद्ध और तृप्त चेतना 

कुछ खोया नहीं और 

सब पा लिया जाता है 

अस्तित्त्व बरस उठता है 

आशीष बनकर

शीतल, नूतन मौन घेर लेता है  

जीवंत हो जाता है कण-कण 

पोषित होता सूर्य की किरणों से 

हवाओं और आकाश की असीमता से 

होती जाती है अधिक मानवीय 

और एक दिन 

शून्य बन जाता है मन 

कृतज्ञता भर जाती है पोर-पोर में 

उसके लिए  

 उसी के द्वार से आती है सदा

दिव्यता की झलक 

गंध अदृश्य की 

संगीत उस अमूर्त का 

फिर हर घड़ी उसी का दर्शन  

जैसे मीरा को श्याम का 

किसी झुरमुट या 

नीले-काले आकाश में 

घनश्याम को देखती  

वह मिट गई थी 

बस उसका होना मात्र था 

और होना मात्र ही 

शुद्ध आनंद होना है !


रविवार, दिसंबर 1

अर्थ

अर्थ 


हर जगह नहीं हो सकते हम 

हो सकती है एक शुभेच्छा 

एक सद्भावना सारे विश्व के लिए 

पहुँच सकते हैं जहाँ तक कदम 

जाना ही होगा 

अपने कंधों पर 

थोड़ा सा बोझ तो उठाना होगा 

अस्तित्त्व दिन रात 

रत है अनथक 

सिपाही मुस्तैद हैं सीमा पर 

शिक्षक स्कूलों में 

और हवा चारों दिशाओं में 

नदियाँ निकल पड़ी हैं खेतों को सींचने 

तितलियाँ 

फूलों से पराग बिखेरने 

हर कोई कर्म में लगा है 

हम भी चुन लें अपने हाथों के लिए 

कोई माकूल काम 

और जीवन को अर्थ मिले !