यज्ञ
एक यज्ञ चलता है बाहर
शुभ कर्म बनें अगरु व चंदन,
एक यज्ञ चलता है भीतर
श्वासों में हो पल-पल सुमिरन !
अग्नि वही समिधा भी वह है
वेदी व ‘होता’ भी वही है,
नव प्रेरणा उमंग ह्रदय की
उलझ-पुलझ में वही सही है !
बरस रहा मेघ के संग जो
नीर वही नदिया में बहता,
तृषा बुझाता आकुल उर की
अखिल विश्व को ढक कर रहता !
बरस रहा मेघ के संग जो
जवाब देंहटाएंनीर वही नदिया में बहता,
तृषा बुझाता आकुल उर की
अखिल विश्व को ढक कर रहता !
जीवन दर्शन पर सुंदर रचना।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंवाह! अनीता जी,सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी !
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत गहरा दिव्य भाव अनीता जी । बाह्यान्तर में यह समानता हो तो जीवन पवित्र यज्ञ होजाए। सबसे कठिन यही है।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ! प्रयास जारी रहना चाहिए
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