शुक्रवार, नवंबर 22

प्रेम

प्रेम 


याद 

हवा की तरह आती है 

और छू कर चली जाती है 

किसी झील की शांत सतह पर 

उड़ते हुए पंछी के पंखों में 

क्योंकि अंततः सब एक है 

प्रेम बरसता है छंद बनकर 

किसी कवि की कविता से 

या चाँदनी बनकर सुनहरे चाँद से 

नहीं होता उस पर किसी का एकाधिकार 

वह तो सबके लिए है 

नदियों, सागरों, मरुथलों 

और बियाबानों तक के लिए 

जिनसे मिलने जाते हैं 

युगों से यात्री 

सितारों के बताये रास्तों से गुजर 

ऐसा प्रेम 

जिसका कोई नाम नहीं है 

वही बच रहता है 

संगीत बनकर 

हर दिल की धड़कन में ! 






मंगलवार, नवंबर 19

कोई

कोई 


कोई निकट ही नहीं 

बहुत निकट है 

पल-पल देख रहा है

देह की हर शिरा का स्पंदन 

प्राणों का आलोड़न 

मन का सहज आनंद 

झट ‘तथास्तु’ कह कर मुस्का देता है 

और वही देख चुका है 

देह की जड़ता 

प्राणों की आतुरता 

मन का रुदन 

पर तब हामी नहीं भरी थी  

प्रकाश की आस जगायी थी 

सहलाया था अदृश्य हाथों से 

घोर अंधेरों में !



रविवार, नवंबर 17

प्रेम

प्रेम 


प्रेम के क्षण में 

स्वर्ग बन जाती है दुनिया 

देव बन जाता है मन 

जो देना चाहता है 

सारे वरदान 

इस जगत को 

प्रेम की नन्ही सी किरण

मिटा देती है सारा तम

खिल जाता है मन उपवन 

प्रेम की तरंग 

भिगो देती है 

आसपास के तटों को 

जब उठती है हास्य के सागर में 

प्रेम दिव्य है 

मानव का मूल है 

पर जो ढक जाता है 

द्वेष और नासमझी के पहाड़ों से

धारा में मीलों नीचे दबे 

हीरे की तरह 

अनदेखा ही रह जाता है 

मन की खुदाई कर उसे पाना है 

प्रियतम के मुकुट में सजाना है 

बार-बार सुननी हैं प्रेम गाथायें 

और गीत प्रेम का गाना है ! 


शुक्रवार, नवंबर 15

प्यास

प्यास 


सब कुछ बेमानी लगता है जब 

कुछ भी समझ नहीं आता 

क्या करना है 

क्यों करना है 

कोई जवाब मन नहीं पाता 

रोज़मर्रा के काम जब अर्थहीन लगते हैं 

कुछ नया है 

पर पकड़ में नहीं आता है 

एक सवाल सा मन में सदा बना रहता है 

जवाब कोई देता हुआ सा नहीं लगता 

एक मौन घेर लेता है जब तब 

चुपचाप बैठ कर उसे सुनने का मन होता है 

शायद उस मौन से ही कोई जवाब आएगा 

बाहर तो कुछ भी आकर्षित नहीं करता 

किसी और लोक में बसता है शायद वह 

जो भीतर ऐसी प्यास भरता है 


बुधवार, नवंबर 13

ऋण

ऋण 


पिता आकाश है, माँ धरा 

जो अपने अंश से 

पोषण करती है संतान का 

पिता सूरज है, माँ चंद्रमा 

जो शीतल किरणों से 

हर दर्द पर लेप लगाता है 

पिता पवन है, माँ अग्नि 

जो नेह की उष्मा से 

जीवन में रंग भरती है 

पिता सागर है, माँ नदिया 

जो मीठे जल से प्यास बुझाती है 

पिता है, तो माँ है 

आकाश के बिना धरा कहाँ होगी 

अंततः सूरज से ही उपजा है चाँद 

वाष्पित सागर ही नदी है 

दोनों पूरक हैं इकदूजे के 

और इस तरह हर कोई 

ऋणी है माँ-पिता का ! 


रविवार, नवंबर 10

गोपी पनघट-पनघट खोजे

गोपी पनघट-पनघट खोजे


सुंदरता की खान छिपी है 

प्रेम भरा कण-कण में जग के , 

छोटा सा इक कीट चमकता 

रोशन होता सागर तल में !


बलशाली का नर्तन अनुपम 

भीषण पर्वत, गहरी खाई, 

अंतरिक्ष अगाध गहरा है 

क़ुदरत जाने कहाँ समाई !


खोज रहे हैं कब से मानव 

महातमस छाया है नभ में, 

शायद पा सकते हैं उसको 

धरित्री के भीतर अग्नि में !


नटखट कान्हा छुप जाता ज्यों 

गोपी पनघट-पनघट खोजे, 

उसके भीतर छिपा हुआ है 

घूँघट उघाड़ वहीं न देखे !


रस्ता भटक गया जो राही 

भटक-भटक कर ही पहुँचेगा, 

गिरते-पड़ते, रोते-हँसते 

अपनी भूलों से सीखेगा !


शुक्रवार, नवंबर 8

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

दुनिया दुख का दूसरा नाम 

कहते आये सुबह औ'शाम, 

देख न पाये उड़ते पंछी 

फूलों से नहीं दुआ-सलाम !


जान-जान कर कुछ कब आया

प्रेम लहर इक भिगो गयी उर, 

एक सफ़र पर सबको जाना 

मिटने से क्यों लगता है डर !


माना अभी-अभी आये हैं 

दूर अतीव  दूर जाना है, 

इक दिन तो मंज़िल आएगी 

गीत पूर्णता का गाना है !


एक बीज से वृक्ष पनपता 

एक अणु में नृलोक समाया, 

एक कोशिका से जन्मा नर 

तन में सारा ज्ञान छिपाया !


सत्य देखना जिस दिन सीखा 

शृंग हिमालय के उठ आये, 

मन के पार उगे हैं उपवन 

कुंज गली में श्याम समाये !


मंगलवार, नवंबर 5

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 


जब सौंप दिया है स्वयं को 

अस्तित्त्व के हाथों में 

तब भय कैसा ?

जब चल पड़े हैं 

कदम उस पथ पर

उस तक जाता है जो 

तो संशय कैसा  ?

जब बो दिया है बीज प्रेम का  

अंतर में उसने ही 

तो उसके खिलने में देरी कैसी  ?

जब भीतर उतर आये हैं 

शांति के कैलाश 

तो गंगा के अवतरण पर 

भीगने से संकोच कैसा  ?

अपना अधिकार लेने में

 यह झिझक क्यों है 

हम उसी के हैं, और वही 

हम बनकर जगत में आया है 

जब जान लिया है या सत्य 

तब यह नाटक कैसा  ?

उसी को खिलने दो 

बढ़ने दो 

कहने दो 

अब अपनी बात चलाने का 

यह आग्रह कैसा  ?

डूब जाओ 

उसके असीम प्रेम में 

किसी तरह 

वह यही तो चाहता है 

फिर उससे भिन्न होने का 

भ्रम कैसा ? 


रविवार, नवंबर 3

शांतता

शांतता 


आज हम थे और सन्नाटा था 

सन्नाटा ! जो चारों और फैला था 

बहा आ रहा था न जाने कहाँ से 

अंतरिक्ष भी छोटा पड़ गया था जैसे 

शायद अनंत की बाहों से झरता था !


आज मौन था और थी चुप्पी घनी 

सब सुन लिया जबकि 

कोई कुछ कहता न था 

कैसी शांति और निस्तब्धता थी उस घड़ी 

जैसे श्वास भी आने से कंपता था!


 कोई बसता है उस नीरवता में भी

उससे मिलना हो तो चुप को ओढ़ना होगा 

छोड़कर सारी चहल-पहल रस्तों की 

मन को खामोशी में इंतज़ार करना होगा 

यह जो आदत है पुरानी उसकी 

बेवजह शोर मचाने की 

छोड़ कर बैठ रहे पल दो पल 

 उस एकांत से मिल पायेगा तभी !


बुधवार, अक्तूबर 30

एक दीप अंतर करुणा का

एक दीप अंतर करुणा का


दीप जलायें शुभ स्मृतियों के 

स्मरण करें राघव, माँ सीता,

इस बार दिवाली में हम मिल 

वरण करें कान्हा की गीता !


 साधें सुमिरन आत्मज्योति का

सुदीप जलायें दिवाली में, 

याद करें सभी प्रियजनों को 

जो अंतर में गहरे बसते  ! 


 अवतारों, सिद्धों को पूजा 

 स्मृति में उनकी ज्योति जलायें,  

करुणामय माँ, परम पिता की  

याद का दीप जले हृदय में !


चैतन्य का दीपक प्रज्ज्वलित 

अपने लक्ष्यों को याद करें, 

मंज़िल तक राहों पर पग-पग 

दीप जलायें संकल्पों के ! 


बहे उजियाला संतोष  का 

आशा का भी दीप जलायें,

दीप जलायें उसी स्नेह से 

पिघल-पिघल जो बहे ह्रदय से !


इस धरती को रोशन कर दे 

भाव व्यक्त हों, बहे उजाला, 

दीप जले श्रद्धा का अनुपम  

एक दीप अंतर करुणा का !