मन उपवन
शब्दों के जंगल उग आते हैं
घने और बियाबान
तो सूर्य का प्रकाश
नहीं पहुँच पाता भूमि तक
मन पर सीलन और काई
की परतें जम जाती हैं
जिसमें गिरते हैं नए-नए बीज
और दरख्त पहले से भी ऊँचे
प्रकाश की किरणें ऊपर-ऊपर
ही रह जाती हैं
मन की माटी में दबे हैं
जाने कितने शब्द
स्मृतियों के घटनाओं
और पुराने जन्मों के
उपवन उगाना है तो
काटना होगा इस जंगल को
सूर्य की तपती धूप
झेलनी होगी ताकि
सोख ले सारी नमी व काई मिट्टी की
खुदाई कर निकाल फेंकनी होंगी
पुरानी जड़ें
व्यर्थ के खर-पतवार
फिर समतल कर माटी को
सूर्य की साक्षी में
नए बीज पूरे होश में बोने होंगे
तब फूल खिलेंगे श्रद्धा और विश्वास के
आत्मा का परस जिन्हें हर पल सुलभ होगा !
इस जंगल को काटना आसान नहीं अनीता जी। बहरहाल अच्छी अभिव्यक्ति है आपकी।
जवाब देंहटाएंआसान तो नहीं पर इसके बिना जीवन अधूरा ही रह जाता है
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१८-११-२०२१) को
' भगवान थे !'(चर्चा अंक-४२५२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार!
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 18 नवंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसूर्य की साक्षी में
जवाब देंहटाएंनए बीज पूरे होश में बोने होंगे
तब फूल खिलेंगे श्रद्धा और विश्वास के
आत्मा का परस जिन्हें हर पल सुलभ होगा !
बिल्कुल सही कहा आदरणीय मैम !
आपने बहुत ही उम्दा रचना!
स्वागत व आभार मनीषा जी!
हटाएंसुंदर सार्थक भाव ,सही कहा आपने नव निर्माण के लिए नींव भी नई बनानी होती है।
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