शनिवार, अक्तूबर 29

तंतु प्रेम का

तंतु प्रेम का 


कितना भी हो 

पीढ़ियों का अंतर 

उन्हें प्रेम का तंतु जोड़े रहता है 

क्या कहें, कितना कहें 

यह ज्ञान नहीं होता 

जब अहंकार के तल से बोलता है मन 

वहाँ आत्मा को मुखर होना पड़ता है 

कभी-कभी शस्त्र उठाने पड़ते हैं अर्जुन को  

और कृष्ण को सारथी बनाना पड़ता है ! 

सही को सही,  ग़लत को ग़लत 

कहने का साहस यदि भीतर नहीं है 

तो जीवन के मर्म तक नहीं पहुँच सकते 

यदि अपने भीतर झाँक कर 

खुद को नहीं बदल पाए कोई 

 नहीं मिल सकता उस आनंद से

जो सबका प्राप्य है 

और बन सकता सहज ही भाग्य है 

जीवन नाम है परिवर्तन का 

पल-पल संवरने और मन के जागरण का 

उस प्रकाश  में नज़र आता है 

प्रेम का तंतु 

जो वैसे छुपा रहता है ! 




12 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(३०-१०-२०२२ ) को 'ममता की फूटती कोंपलें'(चर्चा अंक-४५९६) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. बिना मंथन अमृत नहीं मिलता ,और जीवन का आनन्द भी .

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    1. शत-प्रतिशत सही कह रही हैं आप प्रतिभाजी, आभार !

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  3. जीवन को सही ढंग से देखना और जीना आना चाहिए । सुंदर प्रेरणात्मक रचना ।

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  4. सत्य एवं सार्थक प्रेरणादायक रचना

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  5. 'प्रेम का तंतु'। वाह.. बहुत सुंदर।

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