तंतु प्रेम का
कितना भी हो
पीढ़ियों का अंतर
उन्हें प्रेम का तंतु जोड़े रहता है
क्या कहें, कितना कहें
यह ज्ञान नहीं होता
जब अहंकार के तल से बोलता है मन
वहाँ आत्मा को मुखर होना पड़ता है
कभी-कभी शस्त्र उठाने पड़ते हैं अर्जुन को
और कृष्ण को सारथी बनाना पड़ता है !
सही को सही, ग़लत को ग़लत
कहने का साहस यदि भीतर नहीं है
तो जीवन के मर्म तक नहीं पहुँच सकते
यदि अपने भीतर झाँक कर
खुद को नहीं बदल पाए कोई
नहीं मिल सकता उस आनंद से
जो सबका प्राप्य है
और बन सकता सहज ही भाग्य है
जीवन नाम है परिवर्तन का
पल-पल संवरने और मन के जागरण का
उस प्रकाश में नज़र आता है
प्रेम का तंतु
जो वैसे छुपा रहता है !
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(३०-१०-२०२२ ) को 'ममता की फूटती कोंपलें'(चर्चा अंक-४५९६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी !
हटाएंबिना मंथन अमृत नहीं मिलता ,और जीवन का आनन्द भी .
जवाब देंहटाएंशत-प्रतिशत सही कह रही हैं आप प्रतिभाजी, आभार !
हटाएंजीवन को सही ढंग से देखना और जीना आना चाहिए । सुंदर प्रेरणात्मक रचना ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संगीता जी !
हटाएंसत्य एवं सार्थक प्रेरणादायक रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अभिलाषा जी !
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएं'प्रेम का तंतु'। वाह.. बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
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