गुरुवार, अगस्त 26

विपश्यना

विपश्यना

चंचल हिरण सा, कुलांचे भरता मन
क्षण भर में जा पहुँचा, कहाँ से कहाँ
भ्रम में बेचारा कोमल दूब के,
लगा चबाने कटु पत्तियाँ !

हुआ बेचैन, अकुलाया सा फिरे
कडवाहट झेले, मान्यताओं की
पूर्वाग्रहों की, प्रतिक्रियाओं की
झूठी, सच्ची कल्पनाओं की !

सिखाया विपश्यना ने, ठहरना
घुलतीं चली गयीं ठोस मान्यताएं
देखना, जानना और झाँकना
खुलतीं चली गयीं मजबूत गाँठें !

बहता गया विरोध चुपचाप
रह गया बस, शांत मुक्त मन
गगन सा निर्मल और अनंत
शुद्ध, असीम, स्वच्छ, पावन मन !


२६ अगस्त २०१०

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