विपश्यना
चंचल हिरण सा, कुलांचे भरता मन
क्षण भर में जा पहुँचा, कहाँ से कहाँ
भ्रम में बेचारा कोमल दूब के,
लगा चबाने कटु पत्तियाँ !
हुआ बेचैन, अकुलाया सा फिरे
कडवाहट झेले, मान्यताओं की
पूर्वाग्रहों की, प्रतिक्रियाओं की
झूठी, सच्ची कल्पनाओं की !
सिखाया विपश्यना ने, ठहरना
घुलतीं चली गयीं ठोस मान्यताएं
देखना, जानना और झाँकना
खुलतीं चली गयीं मजबूत गाँठें !
बहता गया विरोध चुपचाप
रह गया बस, शांत मुक्त मन
गगन सा निर्मल और अनंत
शुद्ध, असीम, स्वच्छ, पावन मन !
२६ अगस्त २०१०
Bahut Badia
जवाब देंहटाएंMangal ho Sab Ka
जवाब देंहटाएंलगता है आप विपस्यी साधक हैं, अन्य कविताएँ भी पढ़ें, ब्लॉग पर आपका स्वागत है !
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