फिर से वह गंगा कहलाये
है सहज स्वीकार जहां सब
केवल वह उसका ही दर है,
विवश हुआ सा हामी भर दे
ऐसा यह बंदे का घर है !
कोई नहीं आग्रह उसका
बनें कुसुम या कांटे हम,
दुनिया अपने कहे चलेगी
यह विश्वास समेटे हम !
गिरते-पड़ते, उठते-बढ़ते
इक दिन उससे मिलना होगा,
स्वयं को जब तक खुदा मानते
तब तक निश-दिन जलना होगा !
फूलों, बादल, पंछी हाथों
पल-पल भेज रहा संदेशे,
शेयर के गर दाम न बढे
घबराए हम इस अंदेशे !
गंगा से जल पृथक हुआ जो
सड़ जाता है काम न आए
पुनः जा मिला जब धारा में
फिर से वह गंगा कहलाये !
गिरते-पड़ते, उठते-बढ़ते
जवाब देंहटाएंइक दिन उससे मिलना होगा,
स्वयं को जब तक खुदा मानते
तब तक निश-दिन जलना होगा !
सुन्दर रचना.......शानदार|
वाह वाह शानदार भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंगहन भावों की अभिव्यक्ति बधाई
जवाब देंहटाएंगहन भावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...अभार..
जवाब देंहटाएंगजब ,अच्छी लगी अभिव्यक्ति |
जवाब देंहटाएंvaah....badi arthpoorn kavitaa hai aapki...
जवाब देंहटाएंगिरते-पड़ते, उठते-बढ़ते
जवाब देंहटाएंइक दिन उससे मिलना होगा,
स्वयं को जब तक खुदा मानते
तब तक निश-दिन जलना होगा !
गहन अभिव्यक्ति ..सुन्दर रचना ..