जहाँ नाचने को जग सारा
जीवन
एक ऊर्जा अनुपम
पल-पल
नूतन होती जाती,
नव
छंद, नव ताल सीख लें
नव सुर में नवगीत सुनाती !
इस
पल देखो नभ कुछ कहता
झुकी
हुई वसुधा सुनती है !
पवन
ओढ़नी ओढ़ी अद्भुत
जल
धारा कल-कल बहती है !
मन
मयूर क्यों गुपचुप बैठा
जहाँ
नाचने को जग सारा,
अल्प
क्षुधा ही देह की लेकिन
फैलाया
है खूब पसारा !
मुक्त
हुआ हंसा भी विचरे
झूठी
हैं सारी जंजीरें,
स्वयं
पर ही स्वयं टिका यहाँ
जब
जाना बजते मंजीरे !