सोमवार, फ़रवरी 29

जहाँ नाचने को जग सारा

जहाँ नाचने को जग सारा


जीवन एक ऊर्जा अनुपम
पल-पल नूतन होती जाती,
नव छंद, नव ताल सीख लें
 नव सुर में नवगीत सुनाती !

इस पल देखो नभ कुछ कहता
झुकी हुई वसुधा सुनती है !
पवन ओढ़नी ओढ़ी अद्भुत
जल धारा कल-कल बहती है !

मन मयूर क्यों गुपचुप बैठा
जहाँ नाचने को जग सारा,
अल्प क्षुधा ही देह की लेकिन
फैलाया है खूब पसारा !

मुक्त हुआ हंसा भी विचरे
झूठी हैं सारी जंजीरें,
स्वयं पर ही स्वयं टिका यहाँ  
जब जाना बजते मंजीरे !



गुरुवार, फ़रवरी 25

उसका साथ


उसका साथ

एक अदृश्य हाथ सदा थामे रहता  
बढ़ो, तुम आगे बढ़ो !
कोमल स्पर्श उसका, सहला जाता  
छालों को पावों के
 स्मृति का आँचल समेट लेता
जब कभी बिखरते मोती मन के
जो सदा मित्र की तरह साथ दे   
उठा जमीन से बिठा फलक पर दे
एक खोल की तरह
वह छिपाए है अपने भीतर
उन्मुक्त होकर पर्वतों को लाँघ जाओ,
तेज बहती धार में भी या नहाओ !
उससे कुछ भी न बाहर है,
सब कुछ उसको ही जाहिर है
उसके कदमों पर अर्पित कर दो
अपनी मुस्कान की चमक
 धूपबाती बने स्वप्नों की महक
फौलादी इरादे ही आरती का थाल हो
जो सुनाया जाये उसको
अपने दिल की लगन से आगे
न कोई दूसरा हाल हो !

  


बुधवार, फ़रवरी 10

आया बसंत

आया बसंत



सरसों के पीले फूलों पर
गुनगुन गाते डोल रहे हैं,
मतवाले मदमस्त भ्रमर ये
कौन सी भाषा बोल रहे हैं ?

पात झरे भई शाख गुलाबी
आड़ू के वृक्ष इतराते,
सूनी डालें सहजन की सज
आसमान से करती बातें !

कंचन भी कतार में खड़ा
गुपचुप भीतर गुनता है कुछ,
माह फरवरी आया है तो
वह भी है खिलने को आतुर

सारी कायनात महकी है
घुली पवन में मादक गंध,
रस की कोई गागर छलके
बहा जा रहा है मकरंद !

मन को सुमन बना, कर अर्पित
मुस्कानों को खुली छूट दें,
प्रीत की इक रस धार बहाकर
ये अनंत सौगात लूट लें !

सोमवार, फ़रवरी 8

उसका मिलना


उसका मिलना


याद आता है कभी ?
माँ का वह रेशमी आंचल
छुअन जिसकी सहला भर जाती थी
 अँगुलियों के पोरों को
भर जाता था मन आश्वस्ति के अमृत से
दुबक कर सिमट जाना उस गोद में
अभय कर जाता था
नजर नहीं आती थी जब छवि उसकी
डोलती आस-पास
तो पुकार रुदन बनकर
फूट पडती थी तन-मन के पोर से
खुदा भी उसके जैसा है
जिसकी याद का रेशमी आंचल
अंतर को सहला जाता है
जिसकी शांत, शीतल स्मृति में डूबते ही
सुकून से पोर-पोर भर जाता है
माँ को पहचानता है जो वही उसे जान पाता है !

याद आता है कभी ?
पिता का वह स्नेहाशीष सिर पर
या उससे भी पूर्व उसकी अँगुलियों की मजबूत पकड़
राह पर चलते नन्हे कदमों को
जब सताती थी थकन
कंधे पर बैठ उसके मेलों में किये भ्रमण
खुदा भी उसके जैसा है
वह भी नहीं छोड़ता हाथ
अनजाने छुड़ाकर भाग जाएँ तो और है बात
पिता को मान देता है जो अंतर
वही उससे प्रीत लगा पाता
और गुरू तो मानो
जीवंत रूप है उस एक का
सही राह पर ले जाता
 गड्ढों से बचाता  
जिसने गुरु में उसे देख लिया
रूबरू एक दिन वही उससे मिल पाता !