हाथ थाम भी ले जाता है
जागें हम, कोई यह
चाहे
भांति-भांति के
करे उपचार,
कभी पिलाये दुःख
का काढ़ा
सुख झूला दे कभी
पुचकार !
राहें यदि दुर्गम
लगती हों
हाथ थाम भी ले
जाता है,
किंतु यदि न सजग
रहा कोई
पथ का पत्थर बन
जाता है !
ठोकर खाकर भी हम
जागें
आखिर कब तक यूँ
भटकेंगे,
चार दिनों का
रौनक मेला
जरा मिलेगी,
नयन मुदेंगे !
जाने कितने भय
भीतर हैं
जड़ें काटना वह
सिखलाये,
यदि न जागरण
अविचलित रखा
झट आईना वह
दिखलाये !
बहुत ही सुन्दर सार्थक प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुधा जी..
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