हिंदी दिवस पर
उन अनगिनत साहित्यकारों को विनम्र नमन के साथ समर्पित जिनके साहित्य को पढ़कर ही भीतर सृजन की अल्प क्षमता को प्रश्रय मिला है. जिनके शब्दों का रोपन वर्षों पहले मन की जमीन पर हुआ और आज अंकुरित होकर वाक्यों और पदों के रूप में प्रकटा है.
स्मृतियों का एक घना अरण्य है भीतर..
हाँ, अरण्य, उपवन नहीं.. जहाँ सब कुछ सजा संवरा है
अपनी-अपनी क्यारी में सिमटे हैं गेंदा और गुलाब..
यहाँ तो एक ओर प्रेमचन्द का होरी और हीरा-मोती हैं
दूसरी और महादेवी की नीर भरी बदली का साया
प्रसाद की कामायनी के मनु और इड़ा का वार्तालाप चल ही रहा है
अज्ञेय का शेखर भी अपनी कहानी सुनाता है
गोर्की की माँ, टालस्टाय की अन्ना भी जीवित है यादों में
टैगोर की आँख की किरकिरी और कोलकाता की भीषण बरसात में भीगता हुआ गोरा
श्रीकांत को कोई भूल सकता है क्या शरतचन्द्र के अनगिनत पात्रों के मध्य
पन्त का कौसानी भी बसा है और इलाचंद्र जोशी के गढ़वाल के ऊंचे-नीचे पर्वत
खिली है शिवानी की कृष्णकली और अमृता प्रीतम के लफ्जों की दास्ताँ
नाच्यो बहुत गोपाल और खंजन नयन के अध्याय सुना रहे हैं अद्भुत गाथा
कबीर और रहीम के शब्दों के तीर भी दिल में चुभे हैं जो आज तक नहीं निकले
गहन हैं बहुत गहन इस अरण्य के रास्ते...