पंख पसार उड़े क्षितिजों तक
एक जागरण ऐसा भी हो
खो जाए जब अंतिम तन्द्रा,
रेशा-रेशा नाचे ऊर्जित
मिटे युगों की भ्रामक निद्रा !
मन जो सिकुड़ा-सिकुड़ा सा था
पंख पसार उड़े क्षितिजों तक,
सारी कायनात भरने फिर
बाहें फैलें नीलगगन तक !
दूजा नहीं दिखाई देता
संग पवन के चले डोलते,
चहूँ ओर वसन्त छाया हो
नयन प्रेम के राज खोलते !
संशय, भ्रम, भय जलें अग्नि में
अनहद घन मंजीरे बजते,
मानस भू पर बहे प्रीत रस
थिरकें झूमें पुष्प ख़ुशी के !
एक जागरण ऐसा भी हो
फिर न कभी मदहोशी घेरे,
नहीं सताए कोई अभाव
पलकों में ना स्वप्न अधूरे !
सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंएक जागरण ऐसा भी हो
जवाब देंहटाएंखो जाए जब अंतिम तन्द्रा,
रेशा-रेशा नाचे ऊर्जित
मिटे युगों की भ्रामक निद्रा
बहुत सुंदर पंक्तियाँ
स्वागत व आभार !
हटाएंएक जागरण ऐसा भी हो
जवाब देंहटाएंफिर न कभी मदहोशी घेरे,
नहीं सताए कोई अभाव
पलकों में ना स्वप्न अधूरे ! सुन्दर कृति - -
Bahut badhiya
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