कोई जानता है
मन के ‘परदे’ पर
यादों की फिल्म चलती है
‘वह’ उसी तरह रहता है अलिप्त
जैसे आँख के पर्दे पर
चित्र बने अग्नि का तो जलती नहीं
न ही भीगती समुन्दर की लहरों को घंटों देखते हुए
स्मृतियों के बीज हमने संभाल कर रखे हैं
वर्तमान और अनेक जन्मों के
उन्हें स्वयं ही बोते हैं मन की धरा पर
फिर यदि बीज हुआ दुख की याद का तो
काँटों के वृक्ष उगाते हैं
और देखते हैं जंगल उठते-बढ़ते
जो हमारी ही संतति है
उन्हीं से सुखी-दुखी होते हैं
जब सृष्टि का पालन किया तो संहार से क्यों डरते हैं
उखाड़ फेंकें यदि उन स्मृतियों के वनों को
या देखते रहें उस परदे की तरफ
जो सदा बना रहता है अलिप्त
पूर्व फिल्म के, दौरान या बाद में भी !
सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 19 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंVery Nice your all post. I Love it.
जवाब देंहटाएंफ़्लर्ट शायरी
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अनुराधा जी!
हटाएंउखाड़ फेंकें यदि उन स्मृतियों के वनों को
जवाब देंहटाएंया देखते रहें उस परदे की तरफ
जो सदा बना रहता है अलिप्त
पूर्व फिल्म के, दौरान या बाद में भी ! अति सुन्दर सृजन - - गहन प्रभाव छोड़ती हुई।
स्वागत व आभार शांतनु जी!
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