अब लौट मुझे घर आना है
हर भाव तुझे अर्पित मेरा
हर सुख-दुःख भी तुझसे संभव,
यह ज्ञान और अज्ञान सभी
तुझ एक से प्रकटा है यह भव !
तू बुला रहा हर आहट में
हर चिंता औ' घबराहट में,
तूने थामा है हाथ सदा
आतुरता नहीं बुलाहट में !
हो स्वीकार निमंत्रण तेरा
तेरे आश्रय में सदा रहूँ,
अब लौट मुझे घर आना है
तुझ बिन किससे यह व्यथा कहूँ !
‘मैं’ तुझसे मिलने जब जाता
मौन मौन में घुलता जाये,
जिसकी गूंज अति प्यारी है
कोई मनहर राग गुंजाये !
‘मैं’ खुद को कभी लख न पाता
मौन हुआ जब मिलने जाए,
शब्द हैं सीमित मौन असीम
वही मौन ‘तू’ को झलकाए !
नदिया ज्यों नदिया से मिलती
सागर में जा खो जाती है,
‘मैं’ ‘तू’ में सहज विलीन हुआ
कोई खबर नहीं आती है !
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (05-01-2022) को चर्चा मंच "नसीहत कचोटती है" (चर्चा अंक-4300) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत सुंदर सृजन
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