सोमवार, जून 27

दीवाना मन समझ न पाए

दीवाना मन समझ न पाए


जीवन इक लय में बढ़ता है

जागे भोर साँझ सो जाये,

कभी हिलोर कभी पीड़ा दे

जाने क्या हमको समझाये !


नए नए आविष्कारों से

एक ओर यह सरल हो रहा,

प्रतिस्पर्धा बढ़ी ही जाती

जीना दिन-दिन जटिल हो रहा !


निज पथ का राही ही तो है

अपनी मति गति से चलता है,

फिर भी क्यों मानव का अंतर 

सहयोगी से भी डरता है !


मित्रों में ही शत्रु खोजता

प्रेम दिखाता घृणा छिपाए,

दोहरापन यही तोड़ रहा 

दीवाना मन समझ न पाए !


मन के पार उजाला बिखरा

नजर उठाकर भी ना देखे,

खुद का ही विस्तार हुआ है

स्वयं  लिखे हैं सारे लेखे  !






 

18 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-6-22) को "आओ पर्यावरण बचाएं"(चर्चा अंक-4474) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

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  2. सही सुंदर सभी कुछ खुद का ही लिखा हुआ है

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  3. मन के पार उजाला बिखरा
    नजर उठाकर भी ना देखे,
    खुद का ही विस्तार हुआ है
    स्वयं लिखे हैं सारे लेखे !... वाह!बहुत बढ़िया दी।

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  4. मन के पार उजाला बिखरा

    नजर उठाकर भी ना देखे,

    खुद का ही विस्तार हुआ है

    स्वयं लिखे हैं सारे लेखे ! . बहुत सुंदर सराहनीय रचना।

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  5. मैंने कल टिप्पणी की थी । स्पैम में देखिएगा ।
    बहुत सुंदर रचना ।

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    1. स्वागत व आभार संगीता जी, खेद है आपकी कल वाली टिप्पणी नहीं पढ़ पायी, स्पैम मेल में भी नहीं थी, क्या कहीं और देखा जाता है, आभार !

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  6. खुद का ही विस्तार हुआ है
    स्वयं लिखे हैं सारे लेखे ... वाह

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