बढ़े हाथ को थामा जिसने
पग-पग में जो सम्बल भरता,
वही परम हो लक्ष्य हमारा
अर्थवान जीवन को करता !
जन्मों से जो खोज चल रही
अनजाने में हदें टटोलें,
उसी प्रेम की है तलाश जो
अंतर मन का पट जो खोले !
अब जाकर तो भान हुआ है
सदा पुकारे जाता था वह,
ठुकराया था भ्रमित हृदय ने
अपनी निजता में सिमटे रह !
वही प्रेम वह कोमल करुणा
सहज शांति, क्षमता भी देता,
रग-रग में उल्लास जगाकर
अर्थ अनंत जगत में भरता !
वही ध्येय वह प्राप्य बने जब
शेष सहायक बन जाता है,
वरना आते-जाते जग में
निष्फल स्वेद बहा जाता है !